Thursday, September 19, 2013

जरूरी है 'मीडिया' पर भी कुछ अंकुश - सिद्धार्थ प्रताप सिंह



अभी पिछले दिनों जिस तरह से मान्नीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जातिवादी राजनीति के खतरे भापते हुए जातिवादी राजनीतिक रैलियों में पाबंदी लगाई है वह स्वागत योग्य है मगर मैं यह मानता हूँ और निश्चित ही मेरे इस विचार से आप भी सहमत होंगे कि इसी तरह से राजनीतिक दलों द्वारा धर्म विशेष के नाम पर आयोजित की जाने वाली रैलियों पर भी पूर्ण प्रतिबन्ध होना चाहिए, क्योंकि जाति का सवाल हमारे देश में धर्म से जुड़ा है। जाति तो धर्म की देन है और इस देश में धर्म की राजनीति चरमसीमा पर है। मंदिर-मस्जिद निर्माण की बात उतनी बुरी नहीं है लेकिन राजनीतिक दलों द्वारा जनसभाओं और रैलियों में जिस ढंग से इसका इस्तेमाल करके जनभावनाओं को उद्वेलित करके राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जा रही है वह हमारे संप्रभु राष्ट्र के लिए बेहद ही खतरनाक है। और इस तरह की रैलियों-सभाओं को 'मीडिया' द्वारा प्रचारित-प्रसारित करना दहकती हुई आग में घी डालना है। वैसे इस तरह की रैलियों और सभाओं को रोक पाना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरुर होगा क्योंकि ऐसे राजनेताओं के लिए पार्टी विशेष का बैनर न सही किसी संगठन का बैनर सहारा बन जायेगा अर्थात इस तरह की ओछी राजनीति करके सत्ता प्राप्त करने वालों को रोक पाना कठिन चुनौती है। फिर भी इस नाउम्मीदी के बीच मेरा सोचना है कि अगर 'मीडिया' में जाति और धर्म विशेष का उल्लेख राजनीतिक पार्टियों के नाम के साथ लिखने, बोलने पर पाबंदी लगा दी जाये तो जाति और धर्म को लपेटने वाली राजनीतिक रैलियाँ अपने-आप बड़े स्तर पर निष्प्रभावी हो जाएँगी।
  ठीक उसी तरीके से चुनाव पूर्व राजनैतिक सर्वेक्षण के नाम पर किसी इलाके के जाति विशेष व धर्म विशेष के लोगों को राजनीतिक दलों के साथ जोड़कर आंकड़ा प्रस्तुत करके जनभावनाओं को प्रभावित करने का गोपनीय षड्यंत्र किया जाता है। ऐसे सर्वेक्षणों को 'मीडिया' में प्रचारित-प्रसारित करने से अगर रोक दिया जाए तो मैं समझता हूँ कि जाति और धर्म के नाम पर भारतीय समाज को तोड़ने वाली शक्तियाँ अपने-आप कमजोर हो जायेंगी। मेरा मानना है कि मतदाता केवल मतदाता होता है एवं ठीक उसी प्रकार से राजनेता सिर्फ राजनेता है फिर वह कैसे किसी जाति-विशेष व धर्म-विशेष का ठेकेदार ठहराया जा सकता है? उदहारण स्वरूप क्या नरेन्द्र मोदी को भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाना और 'मीडिया' में हिंदुत्व-हिंदुत्व का नगाड़ा पिटवाना बहुसंख्यक हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को गोलबंद करने का गोपनीय अभियान नहीं है?
 हलाँकि मेरी समझ से अभी हमारे देश में 'मीडिया' के लिए सविंधान में कोई अलग व्यवस्था नहीं है, यह नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से ही अपने अस्तित्व का औचित्य हासिल करता है। और कई बार इसी को हथियार बनाकर विघटन कारी शक्तियाँ अपने मंसूबों में सफल हो जाती हैं। तभी तो मनोरंजन के नाम पर निजी टी.वी.चैनलों में जो भौंडे कार्यक्रम पेश किये जाते हैं वह भी इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर प्रसारित किये जाते हैं और भ्रष्ट्राचार के मामलों को उजागर करने वाले तथा जनहित के कार्यक्रम भी इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सहारा लेकर प्रसारित किये जाते हैं। तब मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या दोनों की जनोपादेयता में व्यापक अंतर नहीं है? वैसे मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपने फैसलों में कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं रहेगा अगर वह अभिव्यक्ति संचारित न हो।
 वैसे जातीय और धार्मिक -दोनों ही किस्म की राजनीति हमारी संप्रभुता के लिए खतरनाक है इसलिए हमें चाहिये कि मान्नीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के राजनीतिक दलों द्वारा जातिगत रैलियों के आयोजन पर पाबंदी से आंगे बढ़कर राजनीतिक दलों द्वारा धार्मिक रैलियों के आयोजन पर भी पाबंदी लगाने की आवाज उठाई जाये एवं साथ ही 'मीडिया' में राजनीतिक दलों के साथ जाति और धर्म विशेष के उल्लेख को पूर्णतः प्रतिबंधित कराया जाये। ठीक वैसे ही जैसे अभी बलात्कार पीड़ित महिला के नाम को छापने व बोलकर उसका नाम प्रसारित करने में पाबंदी है, अगर बहुत जरुरी हो तो 'मीडिया' छद्म जाति व धर्म का उल्लेख करे या 'एक जाति विशेष', 'एक धर्म विशेष' लिखकर ही काम चलाये।
   जबकि हम जानते हैं कि 'मीडिया' हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है और उसकी गरिमा बरकरार रखना हमारा फर्ज भी है मगर दुःख कि कुछ थोड़े से स्वार्थी तत्व मीडिया को अपने पवित्र मिशन से  भटकाकर छीछालेदार की तरफ ले जाने का गोपनीय उपक्रम कर रहे हैं। बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि जिस 'मीडिया' को समाज को जोड़ने का मिशन लेकर चलना चाहिए था वह आज तुच्छ स्वार्थ की खातिर समाज को तोड़ने का काम करती लग रही है मेरी इन बातों को समझने के लिए प्रबुद्ध पाठक १९ सितम्बर २०१३ के दिल्ली से निकलने वाले प्रतिष्ठित अकबारों पर नजर डाल सकते हैं जिनमें स्पष्ट रूप से सारणी बनाकर समाज को  धर्म और जातियों में बाटकर राजनीतिक दलों के साथ जोड़कर प्रचारित-प्रसारित किया गया है।
  (यह लेख दिल्ली से निकलने वाले साप्ताहिक 'परफेक्ट खबर' के २३ से २९ सितम्बर अंक में प्रकाशित हुआ था , और इसी को आधार बनाकर  सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी यथार्थ फाउंडेशन  की तरफ़ से दायर की गई थी...)

Monday, July 15, 2013

सामाजिक आन्दोलनों का राजनीति के रथ में जोता जाना - सिद्धार्थ प्रताप सिंह

नरसिम्हा राव और अटल जी की दूसरी पारी के बीच भारतीय राजनीति में जिस तरह से आये दिन आम चुनाव आ जा रहे थे उससे पिछली तीन सरकारों ने गठबंधन का फेविकोल लगाकर भारतीय आवाम को चुनावों के खर्चे से तो उबार लिया मगर इन सरकारों ने अपने क्रिया-कलापों से लोकतंत्र को ही बेमानी साबित करने का मानो बेड़ा उठा लिया जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप बाबा रामदेव व अन्ना-अरविन्द के पीछे जनता को खड़ा होना पड़ा। अब अरविन्द केजरीवाल का यह कहना बिल्कुल वाजिब है कि देश को नई दिशा देने का यह अनकूल समय आ गया है, मगर जब वे कहते हैं कि अगर अभी नहीं तो कभी नहीं तब वह जाने अनजाने अपने विरोधियों को हसने का मौका दे देते हैं। क्योंकि ऐसा कहना कहीं न कहीं "आप" की हतोत्साही मनोदशा का परिचायक ही लगने लगता है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि अधिकांशतः हर दल का गठन राष्ट्रचिंतन की भावना में भावित होने के बाद ही होता है। "आप" कोई ऐसा अकेला और अंतिम दल नहीं है जिसकी असफलता से देश का बेड़ा गर्क हो जायेगा। मगर "आप" से जुड़े लोंगों का त्याग, देश को कुछ न कुछ दिशा व दशा जरूर दिखायेगा ऐसी उम्मीद आज आम जनमानस में पैदा हो चुकी है। क्या यह कम उपलब्धि है भारतीय राजनीति में ?... इसलिए मेरा "आप" से सहानुभूति रखने वाले तमाम देश-भक्तों से विनम्र अनुरोध है कि 'हम श्रेष्ठ बाकी सब नीच, एकमात्र हमीं सच्चे और बाकी सब झूठे' वाली मानसिकता का परित्याग करें इसीमें "आप" का व भारतीय राजनीति का भविष्य बेहतर होगा। यह तो रही बात भ्रष्टाचार के खिलाफ एकाएक आँधी की तरह उठ खड़े हुए अन्ना के आह्वान पर जन आन्दोलन से निकले दल "आप" की ।
     अब पैरा बदलते हुए बात करते हैं पिछले चार-पाँच वर्षों से भ्रष्टाचार व कालेधन के मुद्दे पर मुखर आवाज उठाने वाले भारतीय योगी बाबा रामदेव व उनके सगठनों की, तब हम पाते हैं कि बाबा ने पूरी प्रामाणिकता से अपनी बातों को पहले योजनाबद्ध तरीके से आम जनमानस तक पहुचाया तत्पश्चात सरकार को घेरने का काम शुरू किया। जिसकी परिणित था नवम्बर 2011 का रामलीला अनशन। जिसमें सरकार उहापोह की स्थित में अपना दमनात्मक चेहरा दिखाकर विश्व स्तर पर निन्दा की पात्र बन गई थी। वैसे मेरा शुरुआत से मानना रहा है कि बाबा रामदेव के आन्दोलन को छोटा साबित करने के लिए अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार का आन्दोलन सरकार ने खुद प्रायोजित तरीके से खड़ा किया था। जिसकी भनक खुद आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे नायकों को भी नहीं हो सकी थी। तब आम जन मानस भला इस षडयंत्र को कैसे भाप पाता। (मगर भाग्य हमारे, कि अन्ना की छाया में कुछ देश-भक्त भी शिव का महिषासुर वाला वरदान पाने में सफल हो गए थे। तभी तो शिव रुपी सरकार ने पूरी ताकत लगाकर अपने ही खड़े किये गए महिषासुरों को दो धड़ों में बाट डाला। जिसकी परिणिति स्वरूप अन्ना की टीम सिर्फ कटी मुंडी बनकर यदा कदा यत्र-तत्र फडफडा रही है और आधा धड़ा "आप" बनकर दिल्ली के इर्द-गिर्द छटपटाने को मजबूर सा पड़ा है। आखिर इस धड़े को वक्त रहते यह अहसास ही नहीं हुआ कि जो मीडिया आज उसे अपने कैमरों की रोशनी से चौधियाये दे रहा है वह बेचारा सरकार द्वारा दिए गए प्रोजेक्ट को पूरा कर रहा है। अब सरकार का प्रोजेक्ट पूरा और उस मीडिया के लिए देश-भक्ति छू मंतर। कहने का मतलब मुझे शुरुआत से ही इस आन्दोलन के जरिये देश में व्यवस्था परिवर्तन की बात बेमानी सी लगती रही है। मगर फिर भी "आप" से बिलकुल उम्मीद छोड़ देना भी बेमानी होगा।) कहने का मतलब मेरा यह है कि मुझे शुरुआत से ही बाबा रामदेव का आन्दोलन मौलिक धरातल पर खड़ा दीखता रहा है। जिससे सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन जैसी बातें भी कोरी बकवास नहीं लगतीं। क्योंकि यह तो निश्चित है कि इस देश का उद्धार तो तभी संभव है जब यहाँ की राजनीति में बराबरी के साथ धर्म भी अपने राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी का पूर्णतः निर्वहन करने लग जायेगा। मगर जैसे कुछ आपत्तियाँ "आप" से हैं वैसे ही बाबा रामदेव से ....क्योंकि बाबा भी अर्धरात्रि के अपमान को निजी अपमान ज्यादा मान बैठे और समूची कांग्रेस को ही भारत से जड़ समूल उखाड़ने की फिराक में दूसरे घाघों के साथ चिपकने लगे । बाबा को यह ध्यान रखना था कि देश का जो बड़ा जनमानस उनके एक आह्वान पर दिल्ली के रामलीला मैदान में डट गया था वह निश्चित रूप से भाजपा समेत तमाम दलों से भी रुष्ट और निराश था। तब यह समझना बड़ा मुश्किल हो रहा है कि आखिर वह कौन सी मज़बूरी आन पड़ी कि बाबा ने अपने पीछे खड़े तमाम देशभक्तों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने में गुरेज नहीं किया। और रामलीला की दूसरी पारी में राजग सयोंजक से लेकर भ्रष्टाचार के आरोपी तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष गडकरी तक को अपने मंच का भागीदार बना लिया। बात वहीँ तक सीमित रहती तब भी उम्मीद की धुंधली किरणें शेष होतीं किन्तु अब जब बाबा ने 'अहम् द्वितीयो संघं' का गुप्त उद्घोष करते हुए भाजपा व उसके मोदी ब्राण्ड को अपने पतंजलि संस्थान का नया उत्पाद समझ जबरजस्त प्रमोशन में मशगूल हो गए हैं तब ऐसी परिस्थितियों में पुनः एकबार आवाम अपने को ठगा महसूस रहा है। फिलवक्त तो मुझे यही दिख रहा है, वैसे आपका देखना और सोचना आपकी वर्तमान मनोदशा पर निर्भर करता है सो आप मेरी बातों से सहमति-असहमति के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं। फिर भी एक प्रश्न आपसे करने का जी हो रहा है उत्तर सूझे तो मेरे चित्त को शांत करें कि आखिर! कब तक सामाजिक आन्दोलनों का हौउआ खड़ा करके राजनीतिक रथों में जोता जायेगा हमारे हिन्दुस्तान के गुलाम लोकतान्त्रिकों को?...
                                                                                                              

Friday, January 4, 2013

नव-वर्ष में कायम हो - संवाद और भरोसा - सिद्धार्थ प्रताप सिंह



 वर्ष 2013 तक पहुचते-पहुचते हमारा लोकतंत्र निश्चित रूप से मजबूत हुआ है इसमें कोई दो-राय नहीं,किन्तु इस बात की भी अनदेखी कतई नहीं की जा सकती कि इस सफ़र में हाल के वर्षों में सरकारों का जनता से सीधा संवाद टूटा है। और इसी कारण जनता का अपनी सरकारों के प्रति भरोसा भी कम हुआ है। इस बात को समझने के लिए हमें अपने पिछले दो सालों में उठ खड़े हुए आन्दोलनों का पुनरावलोकन करना होगा। जैसाकि वर्ष 2011 आन्दोलनों का वर्ष कहा गया । जिसमें बाबा रामदेव का हाई प्रोफाइल आन्दोलन जो भारत सरकार के दिशा-निर्देश पर रातों-रात कुचल दिया गया था। जिसमें मची अफरा-तफरी में एक महिला की मौत भी हो गई। यह बात गौर करने वाली है कि उस मौत का जिम्मेदार सीधे तौर पर किसी को नहीं ठहराया गया इसलिए कोई दोषी अभी तक पकड़ा भी नहीं गया। जबकि अभी वर्तमान की घटना में जब इसी तरह के जनांदोलन में एक पुलिस सिपाही की मौत हुई तो आनन फानन में आठ युवाओं को धर दबोचा गया। जो सबूत के अभाव में अगले ही दिन कोर्ट द्वारा जमानत पर छोड़ दिये गये। थोड़ा सा आगे बढ़ते हुए हम एक और पुलिस और आंदोलनरत जनता के बीच बढ़ती खाई को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि जब बाबा ने एक साल बाद दोबारा अपना झंडा रामलीला मैदान में गाड़ा तो उनके प्रशंशकों ने अपने साथियों की हौसला अफजाई के लिए राजबाला को शहीद का दर्जा दिया जिसे तथाकथित देशभक्ति का चोला पहने विद्वानों ( सत्ता-भक्तों) ने तुरंत ही गलत साबित ठहरा दिया। जिसके कारण राजबाला की शहीद लिखी बहुत सी तस्वीरें पंडाल से उतार ली गईं। और इधर सन 2012 में जब पुलिस में तैनात तोमर जी वैसी ही भीड़ का हिस्सा हुए तो शहीद की तरह पूरे सरकारी सम्मान से पंचतत्त्व में विलीन हुए। वैसे, इसमें किसी आम नागरिक को कोई आपात्ति क्यों होगी, यह तो अपनी-अपनी किस्मत। खैर! इस तरह के तमाम उदहारण प्रस्तुत किये जा सकते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जनता और शाशन-प्रशाशन का एक दूसरे के प्रति रिश्ता दुश्मनों की तरह होता जा रहा है।
    वैसे जनांदोलन का जन्म ही शाशन-प्रशाशन की मक्कारी और निकम्मेपन  के कारण होता है। तभी तो वर्ष 2011में ही अन्ना ने आन्दोलन का वह तूफ़ान खड़ा किया  जिसकी मिसाल लोंगों ने गांधी और जेपी के आन्दोलनों से की। इस आन्दोलन की सबसे बड़ी सफलता रही युवादेश के शहरी युवाओं की मर रही चेतना का पुनर्जागरण। बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के अगुआ चिल्लाते-चिल्लाते हाफ़ने लगे थे कि नवनिर्माण के लिए युवा राजनीति में आयें। मगर किसी युवा के कानों में इन थोथे आह्वानों की जूं तक न रेंग सकी थी। मगर, धन्य अन्ना की आंधी को जिसने युवाओं के अन्दर ऐसा जोश जगाया कि अब सरकारें इन्हीं युवाओं की राजनीति से सत्ता में होते हुए भी बौनी सी मालुम पड़ने लगीं।
  वर्ष 2011 का सूरज डूबते ही एकबारगी ऐसा लगने लगा कि सारे आन्दोलनों की हवा निकल गई। अन्ना के बम्बई अनशन की असफलता से गहरी निराशा फ़ैल गई। रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण हवालात जा पहुँचे। इधर छुटपुट आन्दोलनों का दौर यदा-कदा चलता रहा। सरकार कुछ दुरुस्त हुई ही थी कि बाबा रामदेव ने एक साल बाद अपने अपमान का बदला लेते हुए दिल्ली सरकार के सीने में मूंग दल दी। पूरे विपक्ष को अपने रथ का मानो अश्वदल बना लिया। अपनी मन की करते हुए रामलीला मैदान से जबरन संसद की ओर कूच किया। हलाँकि वह संसद तक तो नहीं पहुँच पाये मगर पूरे दो दिन तक भारत सरकार का दम फुलाये रखा। क्या यह कम बात थी।
   अबकि बार बाबा का आन्दोलन दूसरे आन्दोलनो से हाइजैक होने से भी बचा रहा क्योंकि समानांतर चल रहे अन्ना के आन्दोलन में ऐसी फूट पड़ी कि वह दो धड़ों में बट गया। जिसमें से एक धड़ा "आप" बनकर राजनीतिक समर में उतरने का ऐलान कर चुका है,जिसके भविष्य की इबारत वक्त के गर्भ में छुपी है। दूसरे धड़े में अन्ना अपनी टीम बनाने में जुटे हुए हैं। दावा तो कर रहे हैं कि 2013 की शुरुआत में ही वह एक बार पुनः शंख फूंक देंगें। बाबा 2012 की अपनी सफलता से उत्साहित होकर दावा कर रहे हैं कि 2013में सत्तासीन कांग्रेस की तेरहवीं कर देंगें। हलाँकि हिमांचल के चुनाव उनके दावों को मात्र निजी अपमान से उपजा द्वेष साबित कर रहे हैं। कहने का मतलब इन सभी आन्दोलनकारी नेताओं को जनता का भरपूर समर्थन जारी है,जो यह साबित करता है कि जनता का विश्वास अब अपनी ही चुनी हुई सरकारों के प्रति तेजी से कम हो रहा है।
   2012 का इतिहास लिख चुके इतिहासकारों को इसका अहसास भी नहीं रहा होगा कि अंत के बचे पखवाड़े में हिन्दुस्तान में कोई जनांदोलन बिना नेतृत्व के भी उठ खड़ा हो सकता है। मगर इसी अंतिम पखवाड़े में देश की राजधानी में शासन-प्रशासन के निकम्मेपन का सबूत बनी शर्मनाक घटना घटी जिसने जनमानस को झकझोर डाला। और इस तरह देखते ही देखते बिना नेता के ही भीड़ संसद के गलियारों को फांदती हुई विजय चौक तक जा पहुँची। और शासन-प्रशासन को ऐसी दिक्कत में डाला कि पूरे दो हफ्ते तक दिल्ली समेत पूरे देश के अखबार इस घटना को शासन-प्रशासन बनाम ऐतिहासिक जनांदोलन बताते हुए पटे रहे। सरकार की दिक्कत यह थी कि इस नेतृत्व विहीन आन्दोलन में वह बात किससे करे। फुसलाकर झूठे वादों में बड़ों-बड़ों को बेवकूफ बनाने वाली भारत सरकार चारों खाने चित्त थी। और पुलिस की दिक्कतें तो इतनी बढीं कि वह अपने अपमान का बदला मीडिया कर्मियों पर भी उतारने से नहीं हिचकी। अब इस घटना के बाद दिल्ली सरकार की मुखिया शीला दीक्षित और दिल्ली पुलिस आयुक्त नीरज कुमार आमने-सामने धनुष की डोरी ताने खड़े हैं, जिसकी टंकार से भारत सरकार मुश्किल में पड़ी हुई है। इस जनांदोलन की जननी मानो यज्ञ वेदी पर अपने प्राणों की आहुति देकर हम शुतुरमुर्ग भारतीयों को  जागते रहो- संघर्ष करो और अपने हक़ खुद हासिल करो का नारा देने आई थी। भगवान उस निर्भया की आत्मा को चिर शान्ति प्रदान करे। शायद वह कोई हमारी पौराणिक देवी थी बिल्कुल सीता की तरह जो पैदा ही हुई थी रावण समेत तमाम आसुरी शक्तियों के विनाश के लिये। आजादी के बाद पहली बार राष्ट्र, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, हिन्दू-मुस्लिम की जकड़ से बाहर आकर सूत्रबद्ध हुआ लगता है तभी तो नये वर्ष में प्रवेश करते हुए पिछले वर्षों की तरह मौज-मस्ती वाली रात खामोश सी नजर आई।
   आइये नए वर्ष में प्रवेश करते हुए दुआ करें की सत्ता में बैठे हुए और विपक्ष की सोभा बढ़ा रहे हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधियों की मर रही सवेंदना जाग जाए,,,और उनके दिमाग में यह बात जगह बनाए कि जनता को और अधिक बेवकूफ समझना उनकी खुद की बेवकूफियत की पराकाष्ठा होगी। उम्मीद करते हैं की 2013 में प्रभु उन सबको सदबुद्धि देकर सही निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करेंगें। और इस तरह से सरकारों का अपनी जनता के प्रति एक बार पुनः दिलीसंवाद बहाल होगा जिससे जनता का पुनश्च भरोसा अपनी सरकारों के प्रति कायम होगा। इसी आशा और विश्वास के साथ आइये नव-वर्ष में प्रवेश करें .....
[यह लेख दिल्ली के नवोदित साप्ताहिक (परफेक्ट खबर 07-01-2013) के अंक में प्रकाशित हुआ था ।]
                                                                                                          

Tuesday, December 25, 2012

अशुरक्षित आवाम का यक्ष प्रश्न - सिद्धार्थ प्रताप सिंह





  आँख खुली। अखबार हाथ में आया। आत्मा कॉप उठी। हाय फिर वही .... राजधानी शर्मशार। पुलिस के निकम्मेपन का एक बार फिर जीता जागता सबूत बनी दिल दहला देने वाली दिल्ली की घटना। चलती बस में एक युवती के साथ छ:छ: हवशी भेड़ियों ने खेला खूनी खेल। आखिर! कहाँ जा रहा है हमारा समाज। यह सोचते-सोचते एकदम से भयभीत। कि,क्या ? कक्षा पाँच में पढ़ने वाली मेरी भांजी सही सलामत घर तो आ जायेगी न। कहीं उसका भी शहरी भेड़िया पीछा तो न कर रहे होंगें?... इस तरह के तमाम सवालों ने दिमाग को भयभीत कर डाला। सुबह की नित्य क्रियायों में बस यही सोचता रह गया। अब ऑफिस के एकांत में बैठकर समझ रहा हूँ कि यह तो मेरा सिर्फ कपोलकल्पित भय से उपजा मनोरोग है।
   मगर, आज यह दावा कौन कर सकता है कि इस तरह का मनोरोगी मैं अकेला हूँ। यह सत्ता व्यवस्था से उपजा मनोरोग है। जो भयंकर महामारी की तरह पूरे आवाम को अपनी चपेट में ले रहा है। क्योंकि अपने चारों तरफ घट रही घटनाओं से कोई भी अनभिज्ञ नहीं रह सकता और उन घटनाओं से बिना प्रभावित हुए भी नहीं रहा जा सकता। अतः यह कहा जा सकता है कि इस तरह की बलात्कारी घटनाएँ केवल पीड़ित महिला या उसके परिवार तक सीमित नहीं रहतीं बल्कि वह प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से अपनी जद में पूरे समाज को लेती ही हैं।
  इसलिए इस तरह के क्रूर कृत्य को अंजाम देने वाले लोंगों को समाजद्रोही की संज्ञा देते हुए क्रूरतम सजा देने का प्रावधान होना ही चाहिए बिना किसी लब्बोलुआब के। समाज अनुकरण करने वाली इकाई है इसलिए इस तरह के अपराधियों को इतनी वीभत्स सजा दी जाए ताकि इस तरह की घ्रणित मानसिकता वाले लोंगों के अन्दर कानून का डर पैदा हो सके। जब तक डर पैदा नहीं किया जायेगा तब तक वर्तमान कानून 'खाली बन्दूक' ही साबित होगा। जिससे सिर्फ बन्दर प्रवत्ति इंसान ही भयभीत रहेंगे अपराधी नहीं।
  तब सवाल उठता है कि कौन देगा ऐसे कठोर निर्णय? क्या वह बेचारा न्यायालय जिसे बार-बार अपनी हद में रहने का हुक्म दिया जाता हो। या फिर पुलिस-प्रशाशन जो स्वयं अपराधी प्रवत्तियों को समाज में पनपने की खाद साबित हो रहा हो।(प्रमाण के लिए हाल ही में प्रकाशित वरिष्ठ पत्रकार शुभ्रांशु चौधरी की किताब  देखी जा सकती है)। या फिर ऐसे जनप्रतिनिधि जो स्वयं 'पोर्न वीडियो' देखते हुये कैमरे में कैद होते हों। बहुत अधिक उम्मीद आध्यात्मिक संतों, मठाधीशों, मौलवियों, पादरियों से भी नहीं की जा सकती (क्योंकि समझदार पाठक इनमें भी लम्बी लिस्ट स्वयं बना सकते हैं, लेखक को जरूरत नहीं)। तो फिर क्या हम उम्मीद छोड़ दें?..... समाज जिस ढर्रे में आंगे बढ़ रहा है उसमें बढ़ने दिया जाए? यह यक्ष प्रश्न आज आवाम के सामने उपस्थित हो गया है।
   जबकि हम जानतें हैं कि अपराध समाज रुपी खेत में उगने वाला खरपतवार है, जिसकी जड़ें कहीं न कहीं दबी पड़ी रहती हैं। जो अनुकूलता पाते ही उगना शुरू कर देती हैं। और निगरानी के अभाव में देखते ही देखते अपना साम्राज्य स्थापित कर लेती हैं। आज भारतीय आवाम अपनी निगरानी करने वाले तंत्र से उम्मीद टूटती महसूस कर रहा है। फिर भी भारतीय जनमानस लोकतंत्र पर राजतन्त्र को न्योता नहीं दे रहा यह भाग्य ही समझा जाएगा हमारे लोकतंत्र का। यह हमारे आवाम की विशेषता ही है कि ऐसी घटनाओं के बाद मुखर प्रतिरोध भी सामने आता है मगर  बिना किसी परिणिति तक पहुचाये हम फिर से उसी पुरानी जिन्दगी में मस्त हो जाते हैं। शायद हमारा समाज धैर्यशील समाज है तभी तो वह इतिहास के पन्ने पलटते हुए बोध लगा लेता है कि जब-जब अपराध समाज में भयमुक्त होकर अट्टहास करने लगा तब-तब उसकी चूलें हिलाने के लिए कोई न कोई पैगम्बर, राम, कृष्ण, ईसा, मानवता का सूरज बनकर समाज के पटल पर उगा और समाज को अपराध मुक्त किया।
   खैर! आज हमें भी अपने लोकतंत्र पर भरोसा रखना होगा और उम्मीद करनी होगी कि जल्द ही कोई न कोई मसीहा बनकर संसद भवन के अन्दर सूर्य की भांति प्रकट होगा और समाज में छाये तमावरण को दूर करेगा। तब तक धैर्यपूर्वक समाज का हर नागरिक अपनी सुरक्षा स्वयं करे कृपया पुलिस-प्रशाशन, सरकार पर इसकी अतरिक्त जिम्मेदारी न डालें। धन्यवाद। 
       [यह लेख दिल्ली के नवोदित साप्ताहिक (परफेक्ट खबर 25-12-2012) के अंक से साभार लिया गया है ।]

Monday, November 19, 2012

न्रशंश निर्दयता का नंगा नाच - सिद्धार्थ प्रताप सिंह

बाप का गुंडा राज बेटे के उत्तराधिकार लेते ही पूरी जवानी के साथ उत्तर प्रदेश में अगड़ाई लेने लगा है, इन अखबारी ख़बरों का जीता जागता सबूत 17 अक्टूबर 2012 दिन बुधवार की वह दोपहर बनी जब दिल्ली से सटे नॉएडा के सेक्टर 18 में स्लोगन छपवाए 'सदैव तत्पर' की जिप्सी से खाकी वर्दी में दुर्दांत भेड़िया उतरा और रिक्शा चालक मो. मनीर पर झपट्टा मारते हुए अपने नुकीले धारदार हथियार से ऐसे लहुलुहान कर दिया जैसे मो. मनीर इस शहर का सबसे खतरनाक अपराधी हो और महाशय की पकड़ से निकलने में कामयाब हो रहा हो ।
 बड़े अखबारों की रिपोर्ट की मानें तो मो. मनीर का अपराध बस इतना था कि वह रईशो की बी.एम.डब्ल्यू. लग्जरी गाड़ियों के बीच अपने मानव चलित रिक्शे को जबरन ठूस कर अव्यवस्था फैला रहा था । पुलिस के बनाये नियमों का उल्लघन करके अव्यवस्था फ़ैलाने को, कोई भी जिम्मेदार नागरिक उचित नहीं कहेगा । मगर, क्या? एक कमजोर व्यक्ति के छोटे से अपराध पर तुरंत सजा देने का गुप्त आदेश मुख्यमंत्री महोदय ने दे रखा है ? यदि हाँ, तब भी क्या दुनिया की किसी भी अदालत में इस छोटे से अन्जान अपराध के मुकाबले तुरंत और अभी के सिद्धांत पर मो. मनीर को दी गई पुलिसिया सजा जायज ठहराई जा सकती है ? शायद नहीं -(लेखक) आप स्वतंत्र है ।
 गौर करने वाली दूसरी बात, कि यह केवल एक पुलिस वाले की गलती मात्र  नहीं कही जा सकती क्योंकि पुलिस वाला अकेला नहीं था, वह मो. मनीर के मुताबिक़ पुलिस जिप्सी से उतरा था और सजा देने के बाद उसी जिप्सी से बाकायदा युद्ध-विजयी सैनिक की तरह अपनी चौकी को लौट गया था । शायद इस वीरगाथा को दर्ज कराना उसके लिए फायदेमंद हो सकता था -(लेखक)| इन पंक्तियों के लेखक की बात को समझने के लिए रायपुर के जेल अधीक्षक अंकित गर्ग जैसे तमाम पुरूस्कार विजेताओं को प्रबुद्ध पाठक याद कर सकते हैं ।
सबसे महत्वपूर्ण तीसरी बात- कि आखिर ऐसे मामलों में कहाँ जाते हैं वो सारे के सारे मानवाधिकार सामाजिक संगठन, दलित-गरीब-अल्पसंख्यक की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल और वर्तमान में लोकतंत्र की रक्षा का इकलौता ठेकेदार बनने का स्वांग रचाते चौथे स्तम्भ के पहरुआ बने टी.वी. चैनल जो किसी मनचले द्वारा पत्थर की मूर्ति तोड़ दिए जाने पर गृह-युद्ध छिड़ जाने की चेतावनी देने लगते हैं ...और जीते-जागते गरीब-उपेक्षित मूर्ति के सरेआम रक्तरंजित किये जाने पर अन्जान बने रहने का ढोंग रचाते हैं । ....फिर उन पुलिस अधिकारियों का क्या दोष जिन्हें नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पुलिस के भेष में छुपे भेड़ियों को तुरंत सलाखों के पीछे भेजने का फौरी फरमान जारी करना चाहिए था । इस इलाके के प्रतिष्ठित अखबार जागरण की खबर के मुताबिक़ एसएसपी एस चिन्नप्पा का कहना था कि उन्हें मामले की खबर नहीं है ।
 सवाल यह नहीं कि दोषी पुलिस कर्मियों को क्या और कब तथा कैसी सजा मिलती है । बल्कि प्रश्न यह उठता है कि आखिर वह कौन से जिम्मेदार कारक हैं जो रक्षक को भक्षक बनाने का गोपनीय उपक्रम कर रहे हैं । और इस अशोभनीय प्रयास से उन्हें क्या हासिल होने वाला है ? वर्तमान का यह यक्ष प्रश्न अखिलेश सरकार के मनन और मंथन का अवसर भी बन सकता है यदि वह इसे गंभीरता से लें तो । और सपा के दामन में पुनश्च लग रहे 'गुंडा राज' के धब्बे को मिटा सकते है ।
                              (यह लेख 'प्रथम प्रवक्ता' के पाठक पत्रकार कालम से साभार लिया गया है)
                                                                                                                                                  
  ( जागरण की खबर देखने के लिए इस लिंक पर जा सकते है :

Monday, November 12, 2012

मृणाल पाण्डेय जी के नाम खुला पत्र !


 भास्कर के राष्ट्रीय संस्करण के 24 अक्टूबर 2012 के अंक में 'चौथे स्तम्भ की भूमिका' में मृणाल जी का लेख पढ़ा। जिसमें मृणाल दी ने यह साबित करने की कोशिश की थी कि वर्तमान का अधिसंख्य मीडिया दो बड़ी पार्टियों को छोड़कर टोपी छाप मदारी को प्रमोट करके खतरा मोल ले रहा है। और उन्होंने यहाँ तक लिख डाला था कि मीडिया का एक तबका उस टोपी वाले के द्वारा डाले गए चारे को खाकर जुगाली कर रहा है।
  मृणाल दी वरिष्ठ पत्रकार होने के साथ-साथ साहित्य जगत में भी अपना परचम फहरा चुकी हैं, तो मेरी कोई विशात नहीं जो उन्हें गलत ठहरा संकू या उनकी नियत पर ऊँगली उठाऊँ । सो मैंने निर्णय लिया कि बाया चिठ्ठाजगत मृणाल दी को खुली चिठ्ठी लिखूँ ,,,,,

 दीदी ,
       विनम्रता पूर्वक एक प्रश्न का उत्तर जानना चाहूँगा कि क्या वजह है कि आज आवाम दूरदर्शन की खबरों के लिए अपना टी,वी, चैनल नहीं बदलता ? ( जिसके ऊँचे ओहादे पर आप खुद हैं )।
  दीदी मैंने आज अगर अक्षरों की कीमियागिरी सीखी है तो आप जैसे प्रबुद्ध लोंगो को पढ़कर । मगर, दुःख कि आपको सत्ता के खरीददारों ने जाने-अनजाने खरीद लिया और आपको पता तक नहीं चला कि आपको पहचान दिलाने वाली आपकी सहचरी लेखनी बिक गई । बिकी हुई लेखनी का क्या हश्र होता है यह आप इमरजेंसी के पैरोकार रहे लेखक, पत्रकार, साहित्यकारों की तरफ देखकर भली-भांति जान जाएँगी । भले ही वो सत्ता के गलियारों से मिलने वाले फायदे उठा रहे हों, मगर जनता के दिलों में उनकी क्या छवि है यह किसी से छुपी नहीं।
 मेरे प्रश्न का उत्तर शायद आप न दें कि ' दूरदर्शन की विश्वसनीयता  कम क्यूँ हुई?' मगर मैं आपको उत्तर बताने की कोशिश करता हूँ-
  मैं पिछली बार गांव गया था, घर में अब दूरदर्शन के अलावा डी टी एच के कारण और भी चैनल मौजूद हैं। एक दिन शाम को घर के एक बुजुर्ग इस बात को लेकर नाराज थे कि टी वी में अब उनके चैनल की खबर देखने को नहीं मिलती यानी की दूर दर्शन की । वो कहते हैं कि वह खाट काँग्रेसी हैं और कांग्रेस की खबर तो केवल दूर दर्शन ही बढियां से दिखाता है, कि सोनिया जी ने आज क्या किया,कहाँ गईं, क्या बोलीं । राहुल जी क्या करने वाले हैं,किस दलित के घर जायेंगे। यह सारी ख़बरें विस्तार से तो केवल दूरदर्शन ही दिखाता है। और घर के लड़के हैं तो आजतक-फाजतक लगाकर बैठे रहते हैं।
  तब मुझे दिल्ली में साथ रहने वाले अपने एक मित्र की याद आ गई, जो अक्सर मजाकिया लहजे में दिल्ली के खास अखबारों को (मैं नाम लिखकर खतरा मोल नहीं लूँगा-आप समझदार हैं) कहा करता था कि भाई आज कांग्रेस का मुखपत्र भी पढ़ लेते हैं। शायद, वह सही था क्योंकि उन्ही अखबारों के सम्पादकीय लेखों ने आपको आज यहाँ तक पहुंचा दिया है जहाँ पर पधारकर आप अपने से मतऐक्य न रखने वालों को जुगाली करने की गाली देती हैं । और हाँ कहते हैं न कि सावन के अंधे को सब हरा ही दिखाई पड़ता है। तभी तो सत्ता में व्याप्त भ्रष्टाचार आपको नजर नहीं आता और अगर कोई मीडिया इसकी जुर्रत करता है तो आपको चारा खाकर जुगाली करता मालूम पड़ता है।
 रही बात केजरीवाल और बाबा के मुहिम की तो जब तक जनता उनके साथ है तब तक मीडिया उनके साथ रहने को मजबूर। क्योंकि निजी मीडिया अपने दर्शकों और पाठकों की बदौलत चलता है न कि सरकार के 'हो रहा भारत निर्माण' के नारे और न ही सत्ता के तिकड़म से प्राप्त पद के चरोहन से। ,,,,, खैर तब तक अपने विचारों से पैरोकार रखने वाले मीडिया के साथ गप्पे लड़ाते हुए मंडी हाउस के नत्थू स्वीट्स में गोल-गप्पे खाइए,,,क्योंकि अभी मौसम आपका है , राजा आपका है,,,,
 और हाँ इस लल्लूलाल के प्रश्न का उत्तर मिल जाये तो जवाब बाया मेल जरूर दीजियेगा , तब तक इन्तजार में,,,,,,,,
               आपका भाई spbaghel85@gmail.com
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