Thursday, September 19, 2013

जरूरी है 'मीडिया' पर भी कुछ अंकुश - सिद्धार्थ प्रताप सिंह



अभी पिछले दिनों जिस तरह से मान्नीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय ने जातिवादी राजनीति के खतरे भापते हुए जातिवादी राजनीतिक रैलियों में पाबंदी लगाई है वह स्वागत योग्य है मगर मैं यह मानता हूँ और निश्चित ही मेरे इस विचार से आप भी सहमत होंगे कि इसी तरह से राजनीतिक दलों द्वारा धर्म विशेष के नाम पर आयोजित की जाने वाली रैलियों पर भी पूर्ण प्रतिबन्ध होना चाहिए, क्योंकि जाति का सवाल हमारे देश में धर्म से जुड़ा है। जाति तो धर्म की देन है और इस देश में धर्म की राजनीति चरमसीमा पर है। मंदिर-मस्जिद निर्माण की बात उतनी बुरी नहीं है लेकिन राजनीतिक दलों द्वारा जनसभाओं और रैलियों में जिस ढंग से इसका इस्तेमाल करके जनभावनाओं को उद्वेलित करके राजनीतिक रोटियाँ सेंकी जा रही है वह हमारे संप्रभु राष्ट्र के लिए बेहद ही खतरनाक है। और इस तरह की रैलियों-सभाओं को 'मीडिया' द्वारा प्रचारित-प्रसारित करना दहकती हुई आग में घी डालना है। वैसे इस तरह की रैलियों और सभाओं को रोक पाना नामुमकिन नहीं तो मुश्किल जरुर होगा क्योंकि ऐसे राजनेताओं के लिए पार्टी विशेष का बैनर न सही किसी संगठन का बैनर सहारा बन जायेगा अर्थात इस तरह की ओछी राजनीति करके सत्ता प्राप्त करने वालों को रोक पाना कठिन चुनौती है। फिर भी इस नाउम्मीदी के बीच मेरा सोचना है कि अगर 'मीडिया' में जाति और धर्म विशेष का उल्लेख राजनीतिक पार्टियों के नाम के साथ लिखने, बोलने पर पाबंदी लगा दी जाये तो जाति और धर्म को लपेटने वाली राजनीतिक रैलियाँ अपने-आप बड़े स्तर पर निष्प्रभावी हो जाएँगी।
  ठीक उसी तरीके से चुनाव पूर्व राजनैतिक सर्वेक्षण के नाम पर किसी इलाके के जाति विशेष व धर्म विशेष के लोगों को राजनीतिक दलों के साथ जोड़कर आंकड़ा प्रस्तुत करके जनभावनाओं को प्रभावित करने का गोपनीय षड्यंत्र किया जाता है। ऐसे सर्वेक्षणों को 'मीडिया' में प्रचारित-प्रसारित करने से अगर रोक दिया जाए तो मैं समझता हूँ कि जाति और धर्म के नाम पर भारतीय समाज को तोड़ने वाली शक्तियाँ अपने-आप कमजोर हो जायेंगी। मेरा मानना है कि मतदाता केवल मतदाता होता है एवं ठीक उसी प्रकार से राजनेता सिर्फ राजनेता है फिर वह कैसे किसी जाति-विशेष व धर्म-विशेष का ठेकेदार ठहराया जा सकता है? उदहारण स्वरूप क्या नरेन्द्र मोदी को भाजपा द्वारा प्रधानमंत्री पद का उम्मीदवार बनाया जाना और 'मीडिया' में हिंदुत्व-हिंदुत्व का नगाड़ा पिटवाना बहुसंख्यक हिन्दुओं की धार्मिक भावनाओं को गोलबंद करने का गोपनीय अभियान नहीं है?
 हलाँकि मेरी समझ से अभी हमारे देश में 'मीडिया' के लिए सविंधान में कोई अलग व्यवस्था नहीं है, यह नागरिक की अभिव्यक्ति की स्वतन्त्रता से ही अपने अस्तित्व का औचित्य हासिल करता है। और कई बार इसी को हथियार बनाकर विघटन कारी शक्तियाँ अपने मंसूबों में सफल हो जाती हैं। तभी तो मनोरंजन के नाम पर निजी टी.वी.चैनलों में जो भौंडे कार्यक्रम पेश किये जाते हैं वह भी इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का हवाला देकर प्रसारित किये जाते हैं और भ्रष्ट्राचार के मामलों को उजागर करने वाले तथा जनहित के कार्यक्रम भी इसी अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का सहारा लेकर प्रसारित किये जाते हैं। तब मैं आपसे जानना चाहता हूँ कि क्या दोनों की जनोपादेयता में व्यापक अंतर नहीं है? वैसे मान्नीय उच्चतम न्यायालय ने स्पष्ट रूप से अपने फैसलों में कहा है कि अभिव्यक्ति की स्वतंत्रता का कोई मतलब नहीं रहेगा अगर वह अभिव्यक्ति संचारित न हो।
 वैसे जातीय और धार्मिक -दोनों ही किस्म की राजनीति हमारी संप्रभुता के लिए खतरनाक है इसलिए हमें चाहिये कि मान्नीय इलाहाबाद उच्च न्यायालय के राजनीतिक दलों द्वारा जातिगत रैलियों के आयोजन पर पाबंदी से आंगे बढ़कर राजनीतिक दलों द्वारा धार्मिक रैलियों के आयोजन पर भी पाबंदी लगाने की आवाज उठाई जाये एवं साथ ही 'मीडिया' में राजनीतिक दलों के साथ जाति और धर्म विशेष के उल्लेख को पूर्णतः प्रतिबंधित कराया जाये। ठीक वैसे ही जैसे अभी बलात्कार पीड़ित महिला के नाम को छापने व बोलकर उसका नाम प्रसारित करने में पाबंदी है, अगर बहुत जरुरी हो तो 'मीडिया' छद्म जाति व धर्म का उल्लेख करे या 'एक जाति विशेष', 'एक धर्म विशेष' लिखकर ही काम चलाये।
   जबकि हम जानते हैं कि 'मीडिया' हमारे लोकतंत्र का चौथा स्तम्भ है और उसकी गरिमा बरकरार रखना हमारा फर्ज भी है मगर दुःख कि कुछ थोड़े से स्वार्थी तत्व मीडिया को अपने पवित्र मिशन से  भटकाकर छीछालेदार की तरफ ले जाने का गोपनीय उपक्रम कर रहे हैं। बड़े दुःख के साथ कहना पड़ रहा है कि जिस 'मीडिया' को समाज को जोड़ने का मिशन लेकर चलना चाहिए था वह आज तुच्छ स्वार्थ की खातिर समाज को तोड़ने का काम करती लग रही है मेरी इन बातों को समझने के लिए प्रबुद्ध पाठक १९ सितम्बर २०१३ के दिल्ली से निकलने वाले प्रतिष्ठित अकबारों पर नजर डाल सकते हैं जिनमें स्पष्ट रूप से सारणी बनाकर समाज को  धर्म और जातियों में बाटकर राजनीतिक दलों के साथ जोड़कर प्रचारित-प्रसारित किया गया है।
  (यह लेख दिल्ली से निकलने वाले साप्ताहिक 'परफेक्ट खबर' के २३ से २९ सितम्बर अंक में प्रकाशित हुआ था , और इसी को आधार बनाकर  सुप्रीम कोर्ट में एक जनहित याचिका भी यथार्थ फाउंडेशन  की तरफ़ से दायर की गई थी...)

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