Monday, July 15, 2013

सामाजिक आन्दोलनों का राजनीति के रथ में जोता जाना - सिद्धार्थ प्रताप सिंह

नरसिम्हा राव और अटल जी की दूसरी पारी के बीच भारतीय राजनीति में जिस तरह से आये दिन आम चुनाव आ जा रहे थे उससे पिछली तीन सरकारों ने गठबंधन का फेविकोल लगाकर भारतीय आवाम को चुनावों के खर्चे से तो उबार लिया मगर इन सरकारों ने अपने क्रिया-कलापों से लोकतंत्र को ही बेमानी साबित करने का मानो बेड़ा उठा लिया जिसकी प्रतिक्रिया स्वरुप बाबा रामदेव व अन्ना-अरविन्द के पीछे जनता को खड़ा होना पड़ा। अब अरविन्द केजरीवाल का यह कहना बिल्कुल वाजिब है कि देश को नई दिशा देने का यह अनकूल समय आ गया है, मगर जब वे कहते हैं कि अगर अभी नहीं तो कभी नहीं तब वह जाने अनजाने अपने विरोधियों को हसने का मौका दे देते हैं। क्योंकि ऐसा कहना कहीं न कहीं "आप" की हतोत्साही मनोदशा का परिचायक ही लगने लगता है। मैं ऐसा इसलिए कह रहा हूँ क्योंकि अधिकांशतः हर दल का गठन राष्ट्रचिंतन की भावना में भावित होने के बाद ही होता है। "आप" कोई ऐसा अकेला और अंतिम दल नहीं है जिसकी असफलता से देश का बेड़ा गर्क हो जायेगा। मगर "आप" से जुड़े लोंगों का त्याग, देश को कुछ न कुछ दिशा व दशा जरूर दिखायेगा ऐसी उम्मीद आज आम जनमानस में पैदा हो चुकी है। क्या यह कम उपलब्धि है भारतीय राजनीति में ?... इसलिए मेरा "आप" से सहानुभूति रखने वाले तमाम देश-भक्तों से विनम्र अनुरोध है कि 'हम श्रेष्ठ बाकी सब नीच, एकमात्र हमीं सच्चे और बाकी सब झूठे' वाली मानसिकता का परित्याग करें इसीमें "आप" का व भारतीय राजनीति का भविष्य बेहतर होगा। यह तो रही बात भ्रष्टाचार के खिलाफ एकाएक आँधी की तरह उठ खड़े हुए अन्ना के आह्वान पर जन आन्दोलन से निकले दल "आप" की ।
     अब पैरा बदलते हुए बात करते हैं पिछले चार-पाँच वर्षों से भ्रष्टाचार व कालेधन के मुद्दे पर मुखर आवाज उठाने वाले भारतीय योगी बाबा रामदेव व उनके सगठनों की, तब हम पाते हैं कि बाबा ने पूरी प्रामाणिकता से अपनी बातों को पहले योजनाबद्ध तरीके से आम जनमानस तक पहुचाया तत्पश्चात सरकार को घेरने का काम शुरू किया। जिसकी परिणित था नवम्बर 2011 का रामलीला अनशन। जिसमें सरकार उहापोह की स्थित में अपना दमनात्मक चेहरा दिखाकर विश्व स्तर पर निन्दा की पात्र बन गई थी। वैसे मेरा शुरुआत से मानना रहा है कि बाबा रामदेव के आन्दोलन को छोटा साबित करने के लिए अन्ना के नेतृत्व में भ्रष्टाचार का आन्दोलन सरकार ने खुद प्रायोजित तरीके से खड़ा किया था। जिसकी भनक खुद आन्दोलन का नेतृत्व कर रहे नायकों को भी नहीं हो सकी थी। तब आम जन मानस भला इस षडयंत्र को कैसे भाप पाता। (मगर भाग्य हमारे, कि अन्ना की छाया में कुछ देश-भक्त भी शिव का महिषासुर वाला वरदान पाने में सफल हो गए थे। तभी तो शिव रुपी सरकार ने पूरी ताकत लगाकर अपने ही खड़े किये गए महिषासुरों को दो धड़ों में बाट डाला। जिसकी परिणिति स्वरूप अन्ना की टीम सिर्फ कटी मुंडी बनकर यदा कदा यत्र-तत्र फडफडा रही है और आधा धड़ा "आप" बनकर दिल्ली के इर्द-गिर्द छटपटाने को मजबूर सा पड़ा है। आखिर इस धड़े को वक्त रहते यह अहसास ही नहीं हुआ कि जो मीडिया आज उसे अपने कैमरों की रोशनी से चौधियाये दे रहा है वह बेचारा सरकार द्वारा दिए गए प्रोजेक्ट को पूरा कर रहा है। अब सरकार का प्रोजेक्ट पूरा और उस मीडिया के लिए देश-भक्ति छू मंतर। कहने का मतलब मुझे शुरुआत से ही इस आन्दोलन के जरिये देश में व्यवस्था परिवर्तन की बात बेमानी सी लगती रही है। मगर फिर भी "आप" से बिलकुल उम्मीद छोड़ देना भी बेमानी होगा।) कहने का मतलब मेरा यह है कि मुझे शुरुआत से ही बाबा रामदेव का आन्दोलन मौलिक धरातल पर खड़ा दीखता रहा है। जिससे सम्पूर्ण व्यवस्था परिवर्तन जैसी बातें भी कोरी बकवास नहीं लगतीं। क्योंकि यह तो निश्चित है कि इस देश का उद्धार तो तभी संभव है जब यहाँ की राजनीति में बराबरी के साथ धर्म भी अपने राष्ट्र के प्रति जिम्मेदारी का पूर्णतः निर्वहन करने लग जायेगा। मगर जैसे कुछ आपत्तियाँ "आप" से हैं वैसे ही बाबा रामदेव से ....क्योंकि बाबा भी अर्धरात्रि के अपमान को निजी अपमान ज्यादा मान बैठे और समूची कांग्रेस को ही भारत से जड़ समूल उखाड़ने की फिराक में दूसरे घाघों के साथ चिपकने लगे । बाबा को यह ध्यान रखना था कि देश का जो बड़ा जनमानस उनके एक आह्वान पर दिल्ली के रामलीला मैदान में डट गया था वह निश्चित रूप से भाजपा समेत तमाम दलों से भी रुष्ट और निराश था। तब यह समझना बड़ा मुश्किल हो रहा है कि आखिर वह कौन सी मज़बूरी आन पड़ी कि बाबा ने अपने पीछे खड़े तमाम देशभक्तों की भावनाओं के साथ खिलवाड़ करने में गुरेज नहीं किया। और रामलीला की दूसरी पारी में राजग सयोंजक से लेकर भ्रष्टाचार के आरोपी तत्कालीन भाजपा अध्यक्ष गडकरी तक को अपने मंच का भागीदार बना लिया। बात वहीँ तक सीमित रहती तब भी उम्मीद की धुंधली किरणें शेष होतीं किन्तु अब जब बाबा ने 'अहम् द्वितीयो संघं' का गुप्त उद्घोष करते हुए भाजपा व उसके मोदी ब्राण्ड को अपने पतंजलि संस्थान का नया उत्पाद समझ जबरजस्त प्रमोशन में मशगूल हो गए हैं तब ऐसी परिस्थितियों में पुनः एकबार आवाम अपने को ठगा महसूस रहा है। फिलवक्त तो मुझे यही दिख रहा है, वैसे आपका देखना और सोचना आपकी वर्तमान मनोदशा पर निर्भर करता है सो आप मेरी बातों से सहमति-असहमति के लिए पूर्ण स्वतंत्र हैं। फिर भी एक प्रश्न आपसे करने का जी हो रहा है उत्तर सूझे तो मेरे चित्त को शांत करें कि आखिर! कब तक सामाजिक आन्दोलनों का हौउआ खड़ा करके राजनीतिक रथों में जोता जायेगा हमारे हिन्दुस्तान के गुलाम लोकतान्त्रिकों को?...
                                                                                                              

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