Monday, November 19, 2012

न्रशंश निर्दयता का नंगा नाच - सिद्धार्थ प्रताप सिंह

बाप का गुंडा राज बेटे के उत्तराधिकार लेते ही पूरी जवानी के साथ उत्तर प्रदेश में अगड़ाई लेने लगा है, इन अखबारी ख़बरों का जीता जागता सबूत 17 अक्टूबर 2012 दिन बुधवार की वह दोपहर बनी जब दिल्ली से सटे नॉएडा के सेक्टर 18 में स्लोगन छपवाए 'सदैव तत्पर' की जिप्सी से खाकी वर्दी में दुर्दांत भेड़िया उतरा और रिक्शा चालक मो. मनीर पर झपट्टा मारते हुए अपने नुकीले धारदार हथियार से ऐसे लहुलुहान कर दिया जैसे मो. मनीर इस शहर का सबसे खतरनाक अपराधी हो और महाशय की पकड़ से निकलने में कामयाब हो रहा हो ।
 बड़े अखबारों की रिपोर्ट की मानें तो मो. मनीर का अपराध बस इतना था कि वह रईशो की बी.एम.डब्ल्यू. लग्जरी गाड़ियों के बीच अपने मानव चलित रिक्शे को जबरन ठूस कर अव्यवस्था फैला रहा था । पुलिस के बनाये नियमों का उल्लघन करके अव्यवस्था फ़ैलाने को, कोई भी जिम्मेदार नागरिक उचित नहीं कहेगा । मगर, क्या? एक कमजोर व्यक्ति के छोटे से अपराध पर तुरंत सजा देने का गुप्त आदेश मुख्यमंत्री महोदय ने दे रखा है ? यदि हाँ, तब भी क्या दुनिया की किसी भी अदालत में इस छोटे से अन्जान अपराध के मुकाबले तुरंत और अभी के सिद्धांत पर मो. मनीर को दी गई पुलिसिया सजा जायज ठहराई जा सकती है ? शायद नहीं -(लेखक) आप स्वतंत्र है ।
 गौर करने वाली दूसरी बात, कि यह केवल एक पुलिस वाले की गलती मात्र  नहीं कही जा सकती क्योंकि पुलिस वाला अकेला नहीं था, वह मो. मनीर के मुताबिक़ पुलिस जिप्सी से उतरा था और सजा देने के बाद उसी जिप्सी से बाकायदा युद्ध-विजयी सैनिक की तरह अपनी चौकी को लौट गया था । शायद इस वीरगाथा को दर्ज कराना उसके लिए फायदेमंद हो सकता था -(लेखक)| इन पंक्तियों के लेखक की बात को समझने के लिए रायपुर के जेल अधीक्षक अंकित गर्ग जैसे तमाम पुरूस्कार विजेताओं को प्रबुद्ध पाठक याद कर सकते हैं ।
सबसे महत्वपूर्ण तीसरी बात- कि आखिर ऐसे मामलों में कहाँ जाते हैं वो सारे के सारे मानवाधिकार सामाजिक संगठन, दलित-गरीब-अल्पसंख्यक की राजनीति करने वाले राजनीतिक दल और वर्तमान में लोकतंत्र की रक्षा का इकलौता ठेकेदार बनने का स्वांग रचाते चौथे स्तम्भ के पहरुआ बने टी.वी. चैनल जो किसी मनचले द्वारा पत्थर की मूर्ति तोड़ दिए जाने पर गृह-युद्ध छिड़ जाने की चेतावनी देने लगते हैं ...और जीते-जागते गरीब-उपेक्षित मूर्ति के सरेआम रक्तरंजित किये जाने पर अन्जान बने रहने का ढोंग रचाते हैं । ....फिर उन पुलिस अधिकारियों का क्या दोष जिन्हें नैतिक जिम्मेदारी लेते हुए पुलिस के भेष में छुपे भेड़ियों को तुरंत सलाखों के पीछे भेजने का फौरी फरमान जारी करना चाहिए था । इस इलाके के प्रतिष्ठित अखबार जागरण की खबर के मुताबिक़ एसएसपी एस चिन्नप्पा का कहना था कि उन्हें मामले की खबर नहीं है ।
 सवाल यह नहीं कि दोषी पुलिस कर्मियों को क्या और कब तथा कैसी सजा मिलती है । बल्कि प्रश्न यह उठता है कि आखिर वह कौन से जिम्मेदार कारक हैं जो रक्षक को भक्षक बनाने का गोपनीय उपक्रम कर रहे हैं । और इस अशोभनीय प्रयास से उन्हें क्या हासिल होने वाला है ? वर्तमान का यह यक्ष प्रश्न अखिलेश सरकार के मनन और मंथन का अवसर भी बन सकता है यदि वह इसे गंभीरता से लें तो । और सपा के दामन में पुनश्च लग रहे 'गुंडा राज' के धब्बे को मिटा सकते है ।
                              (यह लेख 'प्रथम प्रवक्ता' के पाठक पत्रकार कालम से साभार लिया गया है)
                                                                                                                                                  
  ( जागरण की खबर देखने के लिए इस लिंक पर जा सकते है :

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