Friday, January 4, 2013

नव-वर्ष में कायम हो - संवाद और भरोसा - सिद्धार्थ प्रताप सिंह



 वर्ष 2013 तक पहुचते-पहुचते हमारा लोकतंत्र निश्चित रूप से मजबूत हुआ है इसमें कोई दो-राय नहीं,किन्तु इस बात की भी अनदेखी कतई नहीं की जा सकती कि इस सफ़र में हाल के वर्षों में सरकारों का जनता से सीधा संवाद टूटा है। और इसी कारण जनता का अपनी सरकारों के प्रति भरोसा भी कम हुआ है। इस बात को समझने के लिए हमें अपने पिछले दो सालों में उठ खड़े हुए आन्दोलनों का पुनरावलोकन करना होगा। जैसाकि वर्ष 2011 आन्दोलनों का वर्ष कहा गया । जिसमें बाबा रामदेव का हाई प्रोफाइल आन्दोलन जो भारत सरकार के दिशा-निर्देश पर रातों-रात कुचल दिया गया था। जिसमें मची अफरा-तफरी में एक महिला की मौत भी हो गई। यह बात गौर करने वाली है कि उस मौत का जिम्मेदार सीधे तौर पर किसी को नहीं ठहराया गया इसलिए कोई दोषी अभी तक पकड़ा भी नहीं गया। जबकि अभी वर्तमान की घटना में जब इसी तरह के जनांदोलन में एक पुलिस सिपाही की मौत हुई तो आनन फानन में आठ युवाओं को धर दबोचा गया। जो सबूत के अभाव में अगले ही दिन कोर्ट द्वारा जमानत पर छोड़ दिये गये। थोड़ा सा आगे बढ़ते हुए हम एक और पुलिस और आंदोलनरत जनता के बीच बढ़ती खाई को समझने के लिए मनोवैज्ञानिक अध्ययन करते हैं तो पाते हैं कि जब बाबा ने एक साल बाद दोबारा अपना झंडा रामलीला मैदान में गाड़ा तो उनके प्रशंशकों ने अपने साथियों की हौसला अफजाई के लिए राजबाला को शहीद का दर्जा दिया जिसे तथाकथित देशभक्ति का चोला पहने विद्वानों ( सत्ता-भक्तों) ने तुरंत ही गलत साबित ठहरा दिया। जिसके कारण राजबाला की शहीद लिखी बहुत सी तस्वीरें पंडाल से उतार ली गईं। और इधर सन 2012 में जब पुलिस में तैनात तोमर जी वैसी ही भीड़ का हिस्सा हुए तो शहीद की तरह पूरे सरकारी सम्मान से पंचतत्त्व में विलीन हुए। वैसे, इसमें किसी आम नागरिक को कोई आपात्ति क्यों होगी, यह तो अपनी-अपनी किस्मत। खैर! इस तरह के तमाम उदहारण प्रस्तुत किये जा सकते हैं जिनसे स्पष्ट होता है कि जनता और शाशन-प्रशाशन का एक दूसरे के प्रति रिश्ता दुश्मनों की तरह होता जा रहा है।
    वैसे जनांदोलन का जन्म ही शाशन-प्रशाशन की मक्कारी और निकम्मेपन  के कारण होता है। तभी तो वर्ष 2011में ही अन्ना ने आन्दोलन का वह तूफ़ान खड़ा किया  जिसकी मिसाल लोंगों ने गांधी और जेपी के आन्दोलनों से की। इस आन्दोलन की सबसे बड़ी सफलता रही युवादेश के शहरी युवाओं की मर रही चेतना का पुनर्जागरण। बड़े-बड़े राजनीतिक दलों के अगुआ चिल्लाते-चिल्लाते हाफ़ने लगे थे कि नवनिर्माण के लिए युवा राजनीति में आयें। मगर किसी युवा के कानों में इन थोथे आह्वानों की जूं तक न रेंग सकी थी। मगर, धन्य अन्ना की आंधी को जिसने युवाओं के अन्दर ऐसा जोश जगाया कि अब सरकारें इन्हीं युवाओं की राजनीति से सत्ता में होते हुए भी बौनी सी मालुम पड़ने लगीं।
  वर्ष 2011 का सूरज डूबते ही एकबारगी ऐसा लगने लगा कि सारे आन्दोलनों की हवा निकल गई। अन्ना के बम्बई अनशन की असफलता से गहरी निराशा फ़ैल गई। रामदेव के सहयोगी बालकृष्ण हवालात जा पहुँचे। इधर छुटपुट आन्दोलनों का दौर यदा-कदा चलता रहा। सरकार कुछ दुरुस्त हुई ही थी कि बाबा रामदेव ने एक साल बाद अपने अपमान का बदला लेते हुए दिल्ली सरकार के सीने में मूंग दल दी। पूरे विपक्ष को अपने रथ का मानो अश्वदल बना लिया। अपनी मन की करते हुए रामलीला मैदान से जबरन संसद की ओर कूच किया। हलाँकि वह संसद तक तो नहीं पहुँच पाये मगर पूरे दो दिन तक भारत सरकार का दम फुलाये रखा। क्या यह कम बात थी।
   अबकि बार बाबा का आन्दोलन दूसरे आन्दोलनो से हाइजैक होने से भी बचा रहा क्योंकि समानांतर चल रहे अन्ना के आन्दोलन में ऐसी फूट पड़ी कि वह दो धड़ों में बट गया। जिसमें से एक धड़ा "आप" बनकर राजनीतिक समर में उतरने का ऐलान कर चुका है,जिसके भविष्य की इबारत वक्त के गर्भ में छुपी है। दूसरे धड़े में अन्ना अपनी टीम बनाने में जुटे हुए हैं। दावा तो कर रहे हैं कि 2013 की शुरुआत में ही वह एक बार पुनः शंख फूंक देंगें। बाबा 2012 की अपनी सफलता से उत्साहित होकर दावा कर रहे हैं कि 2013में सत्तासीन कांग्रेस की तेरहवीं कर देंगें। हलाँकि हिमांचल के चुनाव उनके दावों को मात्र निजी अपमान से उपजा द्वेष साबित कर रहे हैं। कहने का मतलब इन सभी आन्दोलनकारी नेताओं को जनता का भरपूर समर्थन जारी है,जो यह साबित करता है कि जनता का विश्वास अब अपनी ही चुनी हुई सरकारों के प्रति तेजी से कम हो रहा है।
   2012 का इतिहास लिख चुके इतिहासकारों को इसका अहसास भी नहीं रहा होगा कि अंत के बचे पखवाड़े में हिन्दुस्तान में कोई जनांदोलन बिना नेतृत्व के भी उठ खड़ा हो सकता है। मगर इसी अंतिम पखवाड़े में देश की राजधानी में शासन-प्रशासन के निकम्मेपन का सबूत बनी शर्मनाक घटना घटी जिसने जनमानस को झकझोर डाला। और इस तरह देखते ही देखते बिना नेता के ही भीड़ संसद के गलियारों को फांदती हुई विजय चौक तक जा पहुँची। और शासन-प्रशासन को ऐसी दिक्कत में डाला कि पूरे दो हफ्ते तक दिल्ली समेत पूरे देश के अखबार इस घटना को शासन-प्रशासन बनाम ऐतिहासिक जनांदोलन बताते हुए पटे रहे। सरकार की दिक्कत यह थी कि इस नेतृत्व विहीन आन्दोलन में वह बात किससे करे। फुसलाकर झूठे वादों में बड़ों-बड़ों को बेवकूफ बनाने वाली भारत सरकार चारों खाने चित्त थी। और पुलिस की दिक्कतें तो इतनी बढीं कि वह अपने अपमान का बदला मीडिया कर्मियों पर भी उतारने से नहीं हिचकी। अब इस घटना के बाद दिल्ली सरकार की मुखिया शीला दीक्षित और दिल्ली पुलिस आयुक्त नीरज कुमार आमने-सामने धनुष की डोरी ताने खड़े हैं, जिसकी टंकार से भारत सरकार मुश्किल में पड़ी हुई है। इस जनांदोलन की जननी मानो यज्ञ वेदी पर अपने प्राणों की आहुति देकर हम शुतुरमुर्ग भारतीयों को  जागते रहो- संघर्ष करो और अपने हक़ खुद हासिल करो का नारा देने आई थी। भगवान उस निर्भया की आत्मा को चिर शान्ति प्रदान करे। शायद वह कोई हमारी पौराणिक देवी थी बिल्कुल सीता की तरह जो पैदा ही हुई थी रावण समेत तमाम आसुरी शक्तियों के विनाश के लिये। आजादी के बाद पहली बार राष्ट्र, जाति-पाँति, ऊँच-नीच, हिन्दू-मुस्लिम की जकड़ से बाहर आकर सूत्रबद्ध हुआ लगता है तभी तो नये वर्ष में प्रवेश करते हुए पिछले वर्षों की तरह मौज-मस्ती वाली रात खामोश सी नजर आई।
   आइये नए वर्ष में प्रवेश करते हुए दुआ करें की सत्ता में बैठे हुए और विपक्ष की सोभा बढ़ा रहे हमारे चुने हुए जनप्रतिनिधियों की मर रही सवेंदना जाग जाए,,,और उनके दिमाग में यह बात जगह बनाए कि जनता को और अधिक बेवकूफ समझना उनकी खुद की बेवकूफियत की पराकाष्ठा होगी। उम्मीद करते हैं की 2013 में प्रभु उन सबको सदबुद्धि देकर सही निर्णय लेने की क्षमता प्रदान करेंगें। और इस तरह से सरकारों का अपनी जनता के प्रति एक बार पुनः दिलीसंवाद बहाल होगा जिससे जनता का पुनश्च भरोसा अपनी सरकारों के प्रति कायम होगा। इसी आशा और विश्वास के साथ आइये नव-वर्ष में प्रवेश करें .....
[यह लेख दिल्ली के नवोदित साप्ताहिक (परफेक्ट खबर 07-01-2013) के अंक में प्रकाशित हुआ था ।]
                                                                                                          

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